Saturday, September 09, 2006

चुनरी बनी तलवार


रविवार का दिन था। कमला अपने मामा के घर से दुर्ग रेल्वे स्टेशन पारा घुमने जा रही थी। कक्षा आठवीं की छात्र । उम्र चौदह वर्ष । अपने माता-पिता की अकेली संतान थी। वह अपनी सहेली राधा के साथ भिलाई सेक्टर-6से टेम्पो में पहिए के पास एक किनारे में बैठ गई । टेम्पो खचाखच भर गया था। भिलाई से दुर्ग रास्ते पर टेम्पो वाला रूक-रूककर सवारी उतारते-चढ़ाते जा रहा था। कमला अपनी सफेद रंग की नई चुनरी गले में लपेट रखी थी । वह अब राधा के संग बातों में मशगुल थी । टैम्पो तेज गति से दौड़ रही थी। चुनरी हवा में लहराते हुए पहिए में धीरे-धीरे फंसती चली जा रही थी जिसका कमला को भान नहीं थी। टैम्पो जैसे ही रेल्वे क्रासिंग पार किया कि कमला का गर्दन धड़ से अलग हो गया जैसे किसी ने तलवार काट डाला हो । शरीर से खून की फव्वारे फूट रहे थे । एकाएक इस हादसे से अन्य यात्रियों को कुछ समझ नहीं आया कि किसने खून किया ? टैम्पो किनारे जाकर खड़ी हो गई । ड्रायव्हर ने माथा पकड़ लिया कि यह क्या लफड़ा हो गया । सभी यात्रियों ने पास आकर देखा तो कमला गर्दन में जो चुनरी लपेटे थी वह चक्के में फंसी हुई थी। टेम्पो के रफ़्तार से एक ही झटके में चुनरी से गर्दन अलग हो गया था ।

माता-पिता की लाड़ली बिटिया विवाह से पहले बिदा हो गई । सभी मुहल्ले व नगरवासियों ने नम आँखों से कमला की अंतिम संस्कार कर पंचतत्व में विलीन कर बिदा कर दिया । कमला को क्या पता कि जिस चुनरी को बड़े शान से लपेट कर जा रही थी, वही एक दिन तलवार बनकर जान ले लेगी ।
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प्रस्तुतिः सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ़


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